जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
|
6 पाठकों को प्रिय 419 पाठक हैं |
औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
मैं सकुशल नहीं हूँ
आज 16 दिसंबर है। हर साल 16 दिसंबर के दिन, में अलसुबह ही अपने घर की छत पर बांग्लादेश का झंडा लहरा देती थी। झंडा लहराने का काम मेरे लिए ही तय हुआ था। झंडा फहराने से पहले, मैं काफी देर तक झंडे की खुशबू सूंघती रहती थी। मुझे उस झंडे में सुख की, चैन की खुशबू आती थी। उड़ते हुए दांडे के साथ-साथ मेरा मन भी आज़ाद-उन्मुक्त आकाश में उड़ान भरने लगता था। यब उड़ान जीवन को आनंदित करती है। 16 दिसंबर तो वार-बार आता है। इस बार भी आ पहुँचा है। यह पवित्र दिन आते ही वंगाली उत्सव में डूब जाते हैं; दल वाँधकर कृतज्ञता-ज्ञापन के लिए 'स्मृति-सौध' में फूल अर्पित करने पहँचते हैं; शहर में सड़क और घाटों पर नाटक और नाच-गान का प्रदर्शन होता है। शेरे-वांग्ला नगर में धूम-धाम से जश्न मनाया जाता है। धानमंडी के मैदान में कुटीर-शिल्प का मेला लगता है; रमना में गीतों का उत्सव आयोजित किया जाता है! कितना कुछ होता है। इस बार भी समूचे देश में विजय का जश्न मनाया जा रहा होगा। घर-मकान की छतों पर झंडे उड़ रहे होंगे। इस साल हमारे मकान की छत पर किसी ने झंडा लहराया होगा? किसने लहराया होगा? मेरी माँ तो कब से ही रो-रोकर जाने कैसी हो गई हैं। सुना है, आजकल तो वे दिन में भी घर की बत्तियाँ जलाए रखती हैं। कहती हैं, चारों तरफ घुप्प अंधियारा है। अब वे अजूल-फजूल बड़बड़ाने भी लगी हैं। अब्बू भी जाने कैसे तो झूल गए हैं। विरादरी-वाहर कर दिए जाने पर जैसा होता है। अब नाते-रिश्तेदार भी पहले की तरह खैरियत पूछने नहीं आते। यार-दोस्त भी उस घर की छाया तक से कतराते हैं। बेटी ने गुनाह किया, इसका वदला, वे लोग उसके माँ-बाप से ले रहे हैं। सिर्फ इतना ही नहीं, छोटी वहन की नौकरी भी एक दिन अचानक ही चली गई।
उसके दफ्तर के बड़े साहब ने कहा, “अपनी तनखाह वगैरह लो और चली जाओ। कल से तम्हें आने की जरूरत नहीं है। तम किसकी वहन हो, लोग-वागों को अगर पता चल गया तो हम पर यहाँ मुसीबत आ जाएगी।"
और मैं? अपने देश में हज़ारों-हज़ार माइल दूर एक घुप्प अंधेरे देश में बैठी हुई हूँ। यहाँ ऐसा कोई नहीं, जिससे मैं अपनी भापा में बात कर सकूँ। ऐसा कोई नहीं है, जिसके कंधे पर सिर रखकर पल-दो पल रो लूँ। मैंने ऐसा कौन-सा गुनाह किया है कि अपने देश लौटकर आज़ादी के तराने नहीं गा सकती? अपनी प्रिय कविताओं की आवृत्ति नहीं कर सकती? वांग्ला भापा में 'जय बांग्ला' जैसा प्राणवान शब्द और कोई नहीं है। जो जुबान 'जय वांग्ला का नारा लगाती है, वह जुबान किसी भी झठ से समझौता नहीं कर सकती। सभी लोगों की तरह विजय-दिवस के हर्प-जलूस में, मैं क्यों शामिल नहीं हो सकती? अपने ही देश से इतनी असहनीय दूरी क्यों है? जिस देश में मेरा जन्म हुआ, जहाँ मैं बड़ी हुई. अपनी उम्र के बत्तीस साल गुज़ार; जिस देश ने बत्तीस साल पहले मुझे अपनी भाषा में कुछ भी कहने-सुनने की आज़ादी दी, रास्ते-घाट में निश्चित चलने, सुरक्षित जीन की आजादी दी, वहीं देश अचानक इस कदर वदल गया कि देश की बेटी, देश वापस लौटेगी, यह सुनकर वहाँ के लोग भड़क उटते हैं सिर कलम करने की माँग करते हुए, जुलूस निकालते हैं? तो क्या वह मेरा देश नहीं है? पश्चिमी दुनिया ने मुझ अननिगत पुरस्कार दिए, सम्मानित करते हुए अपने सिर पर विटा रखा है, लेकिन मेरा मन तो ब्रह्मपुत्र के उस छोर पर रहता है। मैं मन-ही-मन, दोपहर की धूप में शाप्ला खिले पोखरों में छलांग लगाती हूँ, धूम मचाती हुई पोखर में तैरती रहती हूँ। मेरा मन दूधिया भात, इलिश और कोई मछली के शोरवे में पड़ा रहता है। मेरा ज्ञान-ध्यान बाउल गायकों के एकतारे, हा-डू-डू के मैदानों, पालदार नावों में डूबा रहता है। हर दिन मेरा मन असंभव शून्यता से भर उठता है। मेरी देह तो यहाँ पड़ी रहती है, लेकिन मन बादलों के साथ तैरता हआ पश्चिम से पूरब, समुद्री-पक्षी के पंखों पर सवार होकर उड़ता हुआ बंगोप-सागर तक जा पहुँचता है। मेरी रचनाएँ वहुतेरे लोगों को पसंद नहीं आईं। सरकार को भी पसंद नहीं आई, इसीलिए मुझ पर मुकदमा ठोंक दिया गया; मेरी कितावें जब्त कर ली गईं। वह मुकदमा अभी तक मेरे सिर पर झूल रहा है। इसका फैसला कब होगा, कौन जाने! सुनने में आया है कि इस सरकार ने भी लेखक की स्वतंत्रता-विरोधी मामले को खारिज न करके, इसे जारी रखने का फैसला किया है। इधर निराशा मुझे तीनों पहर भुखमरों की तरह खाएँ जा रही है। मेरे चारों तरफ और ज़्यादा अंधेरा उतरता जा रहा है। पर्त-पतं बर्फ तले मैं सिकुड़ती जा रही हूँ, जमती जा रही हूँ, डूवती जा रही हूँ। मेरी कलम की निब तक जमकर पत्थर हो गई है। पहले वाली वह उद्यमी लड़की धीरे-धीरे झरती जा रही है।
|
- जंजीर
- दूरदीपवासिनी
- खुली चिट्टी
- दुनिया के सफ़र पर
- भूमध्य सागर के तट पर
- दाह...
- देह-रक्षा
- एकाकी जीवन
- निर्वासित नारी की कविता
- मैं सकुशल नहीं हूँ